हिंदी में पवित्र क़ुरान  (Quran Translation in Hindi)
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  • ISBN/ASIN: B00IE96HTM
  • Language: HINDI
  • Publisher: Goodword Books
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हिंदी में पवित्र क़ुरान (Quran Translation in Hindi)

Islamic Children's Books on the Quran, the Hadith, and the Prophet Muhammad
Maulana Wahiduddin Khan

Maulana Wahiduddin Khan, born in 1925 at Azamgarh in India, is an Islamic spiritual scholar who is well versed in both classical Islamic learning and modern science. The mission of his life from a very early stage has been the establishment of world-wide peace, to which end he has devoted much time and effort to the development of a complete ideology of peace and non-violence based on the teachings of the Quran. In the course of his research, the Maulana came to the conclusion that the need of the hour was to present Islamic teachings in the style and language of the present day. Keeping this ideal consistently before him, he has written over 200 books on Islam. In 1983, he wrote a commentary on the Quran, which was published in Arabic as al-Tadhkir al-Qawim fi Tafsir al-Quran al-Hakim and in Urdu and Hindi as Tadhkir al-Quran. The present volume contains a selection of explanatory notes from his original commentary. His most recent publications are The Ideology of Peace, God Arises, and Muhammad, the Prophet for All Humanity. To cater to inquisitive minds and the needs of the spiritually inclined, the Maulana established at New Delhi in 2001 the Centre for Peace and Spirituality.
The Quran, a book which brings glad tidings to mankind along with divine admonition, stresses the importance of man’s discovery of truth on both spiritual and intellectual planes.
Every book has its objective and the objective of the Quran is to make man aware of the Creation plan of God. That is, to tell man why God created this world; what the purpose is of settling man on earth; what is required from man in his pre-death life span, and what he is going to confront after death. The purpose of the Quran is to make man aware of this reality, thus serving to guide man on his entire journey through life into the after-life.

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About the Author

Maulana Wahiduddin Khan is an Islamic scholar, spiritual leader and peace activist. He is the founder of Centre for Peace and Spirituality and has been internationally recognized for his contributions to world peace. The Maulana has authored over 200 books dealing with Islam’s spiritual wisdom, the Prophet’s nonviolent approach, religion’s relation to modernity and other contemporary issues. His English translation of the Quran is widely popular because its language is simple, contemporary and easily understandable.


 

Read Sample

एक :  सूरः अल-फ़ातिहा


अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान है।


(1) सम्पूर्ण प्रशंसा अल्लाह के लिए है जो समस्त संसार का पालनहार है।


(2) अत्यन्त कृपाशीत, और दयावान है।


(3) न्याय के दिन का स्वामी है।


(4) हम तेरी ही उपासना करते हैं और तुझ ही से सहायता चाहते हैं।


(5) हमको सीधा मार्ग दिखा।


(6) उन लोगों का मार्ग जिन पर तूने कृपा की।


(7) उनका मार्ग नहीं जिन पर तेरा क्रोध हुआ, और न उन लोगों का मार्ग जो (सीधे) मार्ग से भटक गये।


दो :  सूरः अल-बक़र


अल्लाह के नाम से जो बड़ा कृपाशील, अत्यन्त दयावान है।


(1) अलिफ़व लामव मीम।


(2) यह अल्लाह की किताब है। इसमें कोई सन्देह नहीं, मार्ग दर्शन है डर रखने वालों के लिए


(3) जो विश्वास करते हैं बिन देखे और नमाज़ स्थापित करते हैं। और जो कुछ हमने उनको दिया है, वह उसमें से ख़र्च करते हैं


(4) और जो ईमान लाते हैं उस पर जो तुम्हारे ऊपर अवतरित हुआ है (कुरआन) और जो तु- मसे पूर्व अवतरित किया गया। और वह आखिरत (परलोक) पर विश्वास करते हैं।


(5) उन्हीं लोगों ने अपने पालनहार का मार्ग पाया है और वही सफलता पाने वाले हैं।


(6) जिन लोगों ने (इन बातों की) अवज्ञा की, उनके लिए समान है तुम उनको डराओ या न डराओ, वह मानने वाले नहीं हैं।


(7) अल्लाह ने उनके दिलों पर और उनके कानों पर मुहर लगा दी है, और उनकी आँखों पर पर्दा है, और उनके लिए कठोर यातना है।


(8) और लोगों में कुछ ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि हम ईमान लाये (विश्वास किया) अल्लाह पर और आखिरत के दिन पर, वास्तविकता यह है कि वह ईमान वाले नहीं हैं।


(9) वह अल्लाह को और ईमान वालों को धोखा देना चाहते हैं, परन्तु केवल वह अपने आप को धोखा दे रहें हैं और उन्हें इसका बोध नहीं है।


(10) उनके दिलों में रोग है तो अल्लाह ने उनके रोग को बढ़ा दिया और उनके लिए कष्टप्रद यातना है, इस कारण कि वह झूठ बोलते थे।


(11) और जब उनसे कहा जाता है कि धरती पर फ़साद (बिगाड़) न करो तो वह उत्तर देते हैं कि हम तो सुधार करने वाले हैं।


(12) सावधान! वास्तव में यही लोग बिगाड़ पैदा करने वाले हैं, परन्तु वह समझ नहीं रखते।


(13) और जब उनसे कहा जाता है कि तुम भी उसी प्रकार ईमान लाओ (निष्ठावान बन जाओ ) जिस प्रकार और लोग ईमान लाये हैं तो वह कहते हैं क्या हम उस प्रकार ईमान लायें जिस प्रकार मूर्ख लोग ईमान लाये हैं। सावधान! मूर्ख स्वय यही लोग हैं, परन्तु वह नहीं जानते।


(14) और जब वह ईमान वालों से मिलते हैं तो कहते हैं कि हम ईमान लाये हैं, और जब वह अपने शैतानों की बैठक में पहुँचते हैं तो वह कहते हैं कि हम तुम्हारे साथ हैं, हम तो उनसे मात्र उपहास (हंसी) करते हैं।


(15) अल्लाह उनके साथ उपहास कर रहा है और वह उनको उनके विद्रोह में ढील दे रहा है, वह भटकते फिर रहे हैं।


(16) यह वे लोग हैं जिन्होंने सन्मार्ग के बदले पथभ्रष्टता (गुमराही) खरीदी, तो उनका व्यापार लाभप्रद न हुआ और वह सन्मार्ग प्राप्त करने वाले न हुए।


(17) उनका उदाहरण ऐसा है जैसे एक व्यक्ति ने आग जलाई, जब आग ने उसके आस-पास को प्रकाशित कर दिया तो अल्लाह ने उनकी आँख की रोशनी छीन ली, और उनको अँधेरे में छोड़ दिया कि उनको कुछ दिखाई नहीं देता।


(18) वे बहरे हैं, गूँगे हैं, अंधे हैं, अब ये (सन्मार्ग की ओर) पलटने वाले नहीं।


(19) अथवा उनका उदाहरण ऐसा है जैसे आसमान से वर्षा हो रही हो, उसमें अँधेरा भी हो और गरज-चमक भी, वह कड़क से डर कर मौत से बचने के लिए अपनी ऊँगलियों अपने कानों में डाल रहे हों, जबकि अल्लाह अवज्ञाकारियों को अपने घेरे में लिये हुए है।


(20) निकट है कि बिजली उनकी दृष्टि को उचक ले, जब भी उन पर बिजली चमकती है, वह उसमें चल पड़ते हैं और जब उन पर अँधेरा छा जाता है तो वह रुक जाते हैं, और यदि अल्लाह चाहे तो उनके कान और उनकी आँखों को छीन ले, वास्तविकता यह है कि अल्लाह हर चीज़ की सामर्थ रखता है।


(21) ऐ लोगो ! अपने रब की इबादत करो जिसने तुमको पैदा किया और उन लोगों को भी जो तुमसे पहले गुज़र चुके हैं, ताकि तुम ( जहन्नम की आग से बच जाओ,


(22) वही हस्ती है, जिसने ज़मीन को तुम्हारे लिए बिछौना बनाया और आसमान को छत बनाया और उतारा आसमान से पानी, और उससे पैदा किए हर प्रकार के फल, तुम्हारी जीविका के रूप में। तो तुम किसी को अल्लाह के समकक्ष न ठहराओ, जबकि तुम जानते हो।


(23) यदि तुम उस वाणी (कुरआन) के सम्बन्ध में सन्देह में हो जो हमने अपने बन्दे (पैग़म्बर मुहम्मद) के ऊपर उतारी है तो लाओ इस जैसी एक सूरः और बुला लो अपने समर्थकों को भी, अल्लाह के सिवा, यदि तुम सच्चे हो ।


(24) और यदि तुम ऐसा न कर सको और कदापि न कर सकोगे तो डरो उस आग से जिसका ईंधन बनेंगे इन्सान और पत्थर, वह तैयार की गई है अवज्ञाकारियों के लिए।


(25) और शुभ सूचना दे दो उन लोगों को जो ईमान लाये और जिन्होंने अच्छे कर्म किए इस बात की कि उनके लिए ऐसे बाग होंगे जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, जब भी उनको उन बाग़ों में से कोई फल खाने को मिलेगा तो वह कहेंगे: यह वही है जो इससे पहले हमको दिया गया था, और मिलेगा उनको एक दूसरे से मिलता-जुलता, और उनके लिए वहाँ पवित्र जोड़े होंगे, और वह उसमें सदैव रहेंगे।


(26) अल्लाह इससे नहीं शर्माता कि वह मच्छर का उदाहरण बयान करे या इससे भी किसी छोटी चीज़ का, फिर जो ईमान वाले हैं वह जानते हैं कि वह सच है उनके पालनहार की ओर से, और जो इन्कार करने वाले हैं, वह कहते हैं कि इस उदाहरण को बयान करके अल्लाह ने क्या चाहा है, अल्लाह इसके माध्यम से बहुतों को भटका देता है और बहुतों का वह इसके माध्यम से मार्ग दर्शन करता है, और वह भटकाता है उन लोगों को जो अवज्ञाकारी हैं।


(27) जो अल्लाह से अपने किए हुए वचन को तोड़ देते हैं और उस चीज़ को तोड़ते हैं जिसको अल्लाह ने जोड़ने का आदेश दिया है और ज़मीन में बिगाड़ पैदा करते हैं, यही लोग हैं घाटा उठाने वाले।


(28) तुम किस प्रकार अल्लाह का इन्कार करते हो, जबकि तुम निर्जीव थे तो उसने तुमको जीवन प्रदान किया, फिर वह तुमको मृत्यु देगा, फिर जीवित करेगा, फिर तुम उसी की ओर लौटाये जाओगे।


(29) फिर वही है जिसने तुम्हारे लिए वह सब कुछ पैदा किया जो धरती पर है, फिर उसने आसमान की ओर ध्यान दिया और सात आसमान ठीक ढंग से बनाया, और वह हर चीज़ को जानने वाला है।


(30) और जब तेरे पालनहार ने फ़रिश्तों से कहा कि मैं पृथ्वी में एक ख़लीफा (उत्तराधिकारी) बनाने वाला हूँ। फ़रिश्तों ने कहा: क्या तू पृथ्वी पर ऐसे लोगों को बसाएगा जो उसमें फ़साद करें और खून बहायें। और हम तेरी प्रशंसा करते हैं और तेरी पवित्रता बयान करते हैं। अल्लाह ने कहा, मैं वह जानता हूँ जो तुम नहीं जानते,


(31) और अल्लाह ने सिखा दिये आदम को सारे नाम, फिर उनको फ़रिश्तों के समक्ष प्रस्तुत किया और कहा कि यदि तुम सच्चे हो तो मुझे इन लोगों के नाम बताओ ।


(32) फ़रिश्तों ने कहा कि तू पवित्र है। हम तो वही जानते हैं जो तूने हमको बताया । निस्सन्देह, तू ही ज्ञान वाला और तत्त्वदर्शी है।


(33) अल्लाह ने कहा ऐ आदम, उनको बताओ उन लोगों के नाम । तो जब आदम ने बताये उनको उन लोगों के नाम तो अल्लाह ने कहा क्या मैंने तुमसे नहीं कहा था कि आसमानों और पृथ्वी के भेद को मैं ही जानता हूँ। और मुझको ज्ञात है जो कुछ तुम प्रकट करते हो और जो कुछ तुम छिपाते हो ।


(34) और जब हमने फ़रिश्तों से कहा कि आदम को सजदा करो, तो उन्होंने सज्दा किया, परन्तु इबलीस ने सजदा न किया। उसने अवज्ञा की और घमण्ड किया और अवज्ञाकारियों में से हो गया ।


(35) और हमने कहा ऐ आदम! तुम और तुम्हारी पत्नी दोनों जन्नत (स्वर्ग के बाग़) में रहो और उसमें से खाओ इच्छाभर, जहाँ से चाहो । और उस वृक्ष के निकट मत जाना अन्यथा तुम अत्याचारियों (ज़ालिमों) में से हो जाओगे ।


(36) फिर शैतान (इबलीस) ने उस वृक्ष के माध्यम से दोनों को विचलित कर दिया और उनको उस आनंदमय जीवन से निकाल दिया जिसमें वह थे। और हमने कहा तुम सब उतरो यहाँ से। तुम एक दूसरे के दुश्मन (शत्रु) होगे । और तुम्हारें लिए पृथ्वी में ठहरना और काम चलाना है एक अवधि तक।


(37) फिर आदम ने सीख लिये अपने पालनहार से कुछ बोल (शब्द) तो अल्लाह ने उस पर दया की । निस्सन्देह वह तौबा (क्षमा-याचना ) को स्वीकार करने वाला, दया करने वाला है।


(38) फिर हमने कहा तुम सब यहाँ से उतरो। फिर जब आये तुम्हारे पास मेरी ओर से कोई मार्गदर्शन तो जो लोग मेरे मार्गदर्शन का अनुसरण करेंगे, उनके लिए न कोई डर होगा और न वह शोकाकुल होंगे।


(39) और जो लोग अवज्ञा करेंगे और हमारी निशानियों को झुठलायेंगे तो वही लोग नरक वाले हैं, वह उसमें सदैव रहेंगे।


(40) ऐ इस्राईल की सन्तान ! याद करो मेरे उस उपकार को, जो मैंने तुम्हारे ऊपर किया, और मेरे वचन को पूरा करो, मैं तुम्हारे वचन को पूरा करूँगा । और मेरा ही डर रखो।


(41) और ईमान लाओ उस चीज़ (कुरआन) पर जो मैंने भेजी है। पुष्टि करती हुई उस किताब की जो तुम्हारे पास है और तुम सबसे पहले इसके झुठलाने वाले न बनो। और न लो मेरी आयतों पर थोड़ा मोल। और मुझसे डरो।


(42) और सच में झूठ को न मिलाओ और सच को न छिपाओ जबकि तुम जानते हो।


(43) और नमाज़ स्थापित करो और ज़कात अदा करो और झुकने वालों के साथ झुक जाओ।


(44) तुम लोगों से भला कर्म करने को कहते हो और अपने आपको भूल जाते हो। हालाँकि तुम किताब को पढ़ते हो, क्या तुम समझते नहीं।


(45) सहायता चाहो धैर्य और नमाज़ से और निस्सन्देह वह भारी है परन्तु उन लोगों पर नहीं, जो डरने वाले हैं।


(46) जो समझते हैं कि उनको अपने पालनहार से मिलना है और वह उसी की ओर लौटने वाले हैं।


(47) ऐ इस्राईल की सन्तान ! मेरे उस उपकार को याद करो जो मैंने तुम्हारे ऊपर किया और इस बात को कि मैंने तुमको संसार वालों पर प्रधानता दी ।


(48) और डरो उस दिन से जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के काम न आयेगा । न उसकी ओर से कोई सिफारिश ; तमबवउउमदकंजपवदद्ध स्वीकार होगी। और न उससे बदले में कुछ लिया जायेगा और न उनकी (अपराधियों) की कोई सहायता की जायेगी ।


(49) और (याद करो) जब हमने तुमको फिरऔन के लोगों से छुटकारा दिलाया, वह तुमको बहुत कष्ट देते थे, तुम्हारे बेटों की हत्या करते और तुम्हारी बेटियों को जीवित रखते। और इसमें तुम्हारे पालनहार की ओर से भारी परीक्षा थी ।


(50) और (याद करो वह समय ) जब हमने नदी को फाड़कर तुम्हें पार कराया। फिर बचाया तुमको और डुबा दिया फिरऔन के लोगों को, और तुम देखते रहे।


(51) और जब हमने बुलाया मूसा को चालीस रात के वादे पर, फिर तुमने उसकी अनुपस्थित में बछड़े को पूज्य बना लिया और तुम अत्याचारी (ज़ालिम) थे।


( 52 ) फिर हमने उसके बाद तुमको क्षमा कर दिया ताकि तुम आभार व्यक्त करने वाले बनो ।


(53) और जब हमने मूसा को किताब दी और फैसला करने वाली वस्तु ताकि तुम मार्ग पा सको ।


(54) और जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा कि ऐ मेरी क़ौम ! तुमने बछड़े को ईश बनाकर अपने आप पर भारी अत्याचार किया है। अब अपने पैदा करने वाले की ओर अपना ध्यान करो और अपने अपराधियों की अपने हाथों से हत्या करो। यह तुम्हारे लिए तुम्हारे पैदा करने वाले के निकट उचित है। तो अल्लाह ने तुम्हारी तौबा (क्षमा याचना ) स्वीकार की । निस्सन्देहः वह बड़ा तौबा स्वीकार करने वाला, अत्यन्त दयावान है।


(55) और जब तुमने कहा कि ऐ मूसा, हम तुम्हारा विश्वास नहीं करेंगे जब तक कि हम अल्लाह को साक्षात अपने सामने न देख लें, तो तुमको बिजली के कड़के ने पकड़ लिया और तुम देख रहे थे।


(56) फिर हमने तुम्हारी मृत्यु के पश्चात् तुमको उठाया ताकि तुम कृतज्ञ बनो ।


(57) और हमने तुम्हारे ऊपर बादलों की छाया की और तुम पर मन्न (बटेर जैसा पक्षी) और सलवा (उपकार के रूप में एक विशेष खाद्य) उतारा। खाओ सुथरी चीज़ों में से जो हमने तुमको दी हैं और उन्होंने हमारा कुछ नहीं बिगाड़ा, बल्कि वह अपना ही नुकसान करते रहे।


(58) और जब हमने कहा कि प्रवेश करो इस नगर में और खाओ इसमें से जहाँ से चाहो, अपनी इच्छानुसार और प्रवेश करो द्वार में सिर झुकाये हुए, और कहो, कि ऐ पालनहार ! हमारे पापों को दूर कर दे। हम तुम्हारे पापों को दूर कर देंगे और भलाई करने वालों को अधिक भी देंगे।


(59) तो अत्याचारियों ने बदल दिया उस बात को, जो उनसे कही गयी थी एक दूसरी बात से। इस पर हमने उन लोगों के ऊपर जिन्होंने अत्याचार कया, उनकी कृतघ्नता के कारण आकाश से प्रताड़ना उतारी।


(60) और याद करो वह समय, जब मूसा ने अपनी क़ौम के लिए पानी माँगा, तो हमने कहा अपनी लाठी पत्थर पर मारो, तो उससे फूट निकले बारह स्रोत । प्रत्येक समूह ने अपना-अपना घाट पहचान लिया। खाओ और पियो अल्लाह की दी हुई जीविका से और ज़मीन में बिगाड़ फैलाने वाले बनकर न फिरो |


(61) और याद करो, जब तुमने कहा, ऐ मूसा, हम एक ही प्रकार के खाने पर कदापि सन्तोष नहीं कर सकते। अपने पालनहार को हमारे लिए पुकारो कि वह निकाले हमारे लिए, जो उगता है धरती से, साग और ककड़ी और गेहूँ और मसूर और प्याज़। मूसा ने कहाः क्या तुम एक उत्तम चीज़ के बदले एक मामूली चीज़ लेना चाहते हो । किसी नगर में उतरो तो तुमको मिलेगी वह चीज़ जो तुम माँगते हो, और डाल दिया गया उनपर अपमान और निर्धनता और वह अल्लाह के क्रोध के भागी हो गये। यह इस कारण से हुआ कि वह अल्लाह की निशानियों को झुठलाते थे और पैग़म्बरों की अकारण हत्या करते थे। यह इस कारण से कि उन्होंने अवज्ञा की और वह हद पर न रहते थे।


(62) निस्संदेह, जो लोग ईमान वाले हुए और जो लोग यहूदी हुए और नसारा (ईसाई) और साबी, उनमें से जो व्यक्ति ईमान लाया अल्लाह पर और आखिरत (परलोक) के दिन पर और उसने भले कर्म किये तो उसके लिए उसके पालनहार के पास (अच्छा ) बदला है। और उनके लिए न कोई भय है और न वह दुःखी होंगे।


(63) जब हमने तुमसे तुम्हारा वचन लिया और तूर पहाड़ को तुम्हारे ऊपर उठाया। पकड़ो उस वस्तु को जो हमने तुमको दी है दृढ़ता के साथ, और जो कुछ इसमें है उसको याद रखो ताकि तुम बचो।


(64) इसके बाद तुम उससे फिर गये। यदि अल्लाह की कृपा और उसकी दया तुम पर न होती तो अवश्य तुम विनष्ट हो जाते।


(65) और उन लोगों की हालत तुम जानते हो जिन्होंने सब्त (शनिवार) के सम्बन्ध में अल्लाह के आदेशों को तोड़ा, तो हमने उनको कह दिया तुम लोग अपमानित बन्दर बन जाओ।


(66) फिर हमने इसको शिक्षा प्रद बना दिया उन लोगों के लिए जो उसके सामने थे और आने वाली पीढियों के लिये । और इसमें हमने शिक्षा रख दी इरने वालों के लिए।


(67) जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा कि अल्लाह तुमको आदेश देता है कि तुम एक गाय ज़बह करो। उन्होंने कहा: क्या तुम हमसे हँसी कर रहे हो । मूसा ने कहा कि मैं अल्लाह की शरण माँगता हूँ कि मैं ऐसा अज्ञानी बन


(68) उन्होंने कहा, अपने पालनहार से निवेदन करो कि वह हमसे वर्णन करे कि वह गाय कैसी हो । मूसा ने कहा, अल्लाह कहता है कि वह गाय न बूढ़ी हो न बच्चा, इनके बीच की हो । अब कर डालो जो आदेश तुमको मिला है।


(69) फिर उन्होंने कहा, अपने पालनहार से निवेदन करो, वह बताये उसका रंग कैसा हो । मूसा ने कहा, अल्लाह कहता है कि वह गहरे पीले रंग की हो, देखने वालों को भली प्रतीत होती हो ।


(70) फिर वह कहने लगे, अपने पालनहार से पूछो कि वह हमसे वर्णन करे कि वह कैसी हो। क्योंकि गाय में हमको सन्देह हो गया है। और अल्लाह ने चाहा तो हम मार्ग प्राप्त कर लेंगे। (71) मूसा ने कहा अल्लाह कहता है कि वह ऐसी गाय हो कि परिश्रम करने वाली न हो, भूमि को जोतने वाली और खेतों को पानी देने वाली न हो। वह सम्पूर्ण सुरक्षित हो, उसमें कोई धब्बा न हो। बोलेः अब तुम स्पष्ट बात लाये। फिर उन्होंने उसको ज़बह किया। और वह ज़बह करते दिखाई न देते थे। (72) और जब तुमने एक व्यक्ति को मार डाला, फिर तुम एक दूसरे पर इसका आरोप लगाने लगे, जबकि अल्लाह प्रकट कर देना चाहता था जो कुछ तुम छिपाना चाहते थे । (73) तो हमने आदेश दिया कि मारो उस मुर्दे को इस गाय का एक टुकड़ा । इसी प्रकार जीवित करता है अल्लाह मुर्दों को। और वह तुमको अपनी निशानियाँ दिखाता है, ताकि तुम समझो। (74) फिर उसके बाद तुम्हारे दिल कठोर हो गये । अन्ततः वह पत्थर जैसे हो गये, अथवा उससे भी अधिक कठोर । पत्थरां में कुछ ऐसे भी होते हैं जिनसे नहरें फूट निकलती हैं। कुछ पत्थर फट जाते हैं और उनसे पानी निकल आता है और कुछ पत्थर ऐसे भी होते हैं जो अल्लाह के डर से गिर पड़ते हैं। और अल्लाह उससे अनभिज्ञ नहीं जो तुम करते हो । (75) क्या तुम यह आशा रखते हो कि ये यहूदी तुम्हारे कहने से ईमान ले आयेंगे। हालाँकि उनमें से कुछ लोग ऐसे हैं कि वह अल्लाह की वाणी सुनते थे और फिर उसको बदल डालते थे, समझने के बाद, और वह जानते हैं। (76) जब वह ईमान वालों से मिलते हैं तो कहते हैं कि हम ईमान लाये हुए हैं। और जब वह आपस में एक दूसरे से मिलते हैं तो कहते हैं: क्या तुम उनको वह बातें बताते हो जो अल्लाह ने तुम पर खोली हैं कि वह तुम्हारे विरुद्ध तम्हारे पालनहार के पास तुमसे तर्क-विर्तक करें। क्या तुम समझते नहीं । (77) क्या वह नहीं जानते कि अल्लाह को ज्ञात है जो कुछ वह छिपाते हैं और जो कुछ वह प्रकट करते हैं। (78) और उनमें अनपढ़ हैं जो नहीं जानते किताब को परन्तु अभिलाषाएँ । उनके पास कल्पना के अतिरिक्त और कुछ नहीं । (78) अतः विनाश है उन लोगों के लिए जो अपने हाथ से किताब लिखते हैं, फिर कहते हैं कि यह अल्लाह की ओर से है। ताकि उसके माध्यम वह से वह थोड़ी सी प्राप्त कर लें। अतः विनाश है उसके कारण, जो उनके हाथों ने लिखा । और उनके लिए विनाश है अपनी उस कमाई से । (80) और वह कहते हैं हमको नरक (जहन्नम) की आग नहीं छूएगी सिवाय गिनती के कुछ दिन । कहो क्या तुमने अल्लाह के पास से कोई वचन ले लिया है कि अल्लाह अपने वचन के विरुद्ध नहीं करेगा। अथवा अल्लाह के ऊपर ऐसी बात कहते हो जिनका तुमको ज्ञान नहीं । (81) हाँ जिसने कोई बुराई की और उसके पाप ने उसको अपने घेरे में ले लिया, तो वही लोग नरक वाले हैं, वह उसमें सदैव रहेंगे। (82) और जो लोग ईमान लाये और जिन्होंने भले कर्म किये, वह जन्नत (स्वर्ग) वाले लोग हैं, वह उसमें सदैव रहेंगे। (83) और जब हमने इस्राईल की सन्तान से वचन लिया कि तुम अल्लाह के अतिरिक्त किसी की इबादत न करोगे और तुम भला व्यवहार करोगे माता-पिता के साथ, सम्बन्धियों के साथ, अनाथों और निर्धनों के साथ, और यह कि लोगों से अच्छी बात कहो, और नमाज़ स्थापित करो और जकात अदा करो। फिर तुम उससे फिर गये सिवाय थोड़े लोगों के। और तुम वचन देकर उससे हट जाने वाले लोग हो । (84) और जब हमने तुमसे वचन लिया कि तुम अपनां का खून न बहाओगे और अपने लोगों को अपनी बस्तियों से न निकालोगे। फिर तुमने वचन दिया और तुम उसके साक्षी हो । (85) फिर तुम ही वह लोग हो कि अपनों की हत्या करते हो और अपने ही एक समूह को उनके नगरों से निकालते हो। उनके विरुद्ध उनके शत्रुओं की सहायता करते हो, पाप और अन्याय के साथ। फिर यदि वह तुम्हारे पास बन्दी बनकर आते हैं तो तुम फिदिया (अर्थदण्ड) अदा करके उनको छुड़ाते हो । जबकि स्वयं उनको निर्वासित करना तुम्हारे ऊपर हराम (अवैध) था। क्या तुम अल्लाह की किताब के एक भाग को मानते हो और एक भाग को झुठलाते हो। अतः तुममे से जो लोग ऐसा करें, उनका दण्ड इसके अतिरिक्त क्या है कि उनके सांसारिक जीवन में अपमान हो और क़यामत (ऊठाये जाने के दिन) में उनको कठोर यातना में डाल दिया जाये। और अल्लाह उस बात से अनभिज्ञ नहीं है जो तुम कर रहे हो। (86) यही हैं वह लोग जिन्होंने परलोक के बदले सांसारिक जीवन खरीदा। अतः न उनकी यातना में कमी की जायेगी और न उनको सहायता पहुँचेगी। (87) और हमने मूसा को किताब दी और उसके बाद एक के बाद एक रसूल (सन्देशवाहक) भेजे। और मरियम के बेटे ईसा को खुली-खुली निशानियाँ प्रदान कीं और पवित्र आत्मा (रुहुल - कुट्स) से उसकी सहायता की। तो जब भी कोई रसूल (सन्देष्टा) तुम्हारे पास वह बात लेकर आया जो तुम्हारे जी को पसंद न थी तो तुमने घमण्ड किया। फिर तुम ने एक समूह को झुठलाया और एक समूह की हत्या कर दी। (88) और यहूदी कहते हैं कि हमारे हृदय बन्द हैं। नहीं बल्कि अल्लाह ने उनकी अवज्ञा के कारण उनपर फटकार भेजी है। इसलिए वह बहुत कम ईमान लाते हैं। (89) और जब उनके पास अल्लाह की ओर से एक किताब आई जो पुष्टि करने वाली है उसकी जो उनके पास है और इससे पहले वह स्वयं न मानने वालों पर विजय मांगा करते थे। फिर जब उनके पास वह चीज़ आई जिसको उन्होंने पहिचान लिया था तो उन्होंने उसको झुठला दिया। अतः अल्लाह की फटकार है झुठलाने वालों पर। (90) कैसी बुरी है वह चीज़ जिससे उन्होंने अपने प्राणों का सौदा किया कि वह अवज्ञा कर रहे हैं अल्लाह कि उतारी हुई वाणी की, इस हठ के कारण कि अल्लाह अपनी कृपा और दया अपने बन्दों में से जिसपर चाहे उतारे । अतः वह क्रोध पर क्रोध कमाकर लाये और अवज्ञाकारियों के लिए अपमानजनक यातना है। (91) और जब उनसे कहा जाता है कि उस वाणी पर ईमान लाओ जो अल्लाह ने उतारी है तो वह कहते हैं कि हम उस पर ईमान रखते हैं जो हमारे ऊपर अवतरित हुआ है और वह उसको झुठलाते हैं जो उसके पीछे आया है, यद्यपि वह सच है और पुष्टि और समर्थन करने वाला है उसका जो उनके पास है। कहो, यदि तुम ईमान वाले हो तो तुम इससे पहले अल्लाह के पैग़म्बरों की हत्या क्यों करते रहे हो । (92) और मूसा तुम्हारे पास खुली निशानियाँ लेकर आया। फिर तुमने उसके पीछे बछड़े को पूज्य बना लिया और तुम अत्याचार करने वाले हो । (93) और जब हमने तुमसे वचन लिया और तूर पहाड़ को तुम्हारे ऊपर खड़ा किया जो आदेश हमने तुमको दिया है, उसको दृढ़ता के साथ पकड़ो और सुनो। उन्होंने कहाः हमने सुना और हमने नहीं माना। और उनकी अवज्ञा के कारण बछड़ा उनके दिलों में रच बस गया। कहो यदि तुम ईमान वाले हो तो कैसी बुरी है वह चीज़, जो तुम्हारा ईमान तुमको सिखाता है। (94) कहो यदि अल्लाह के पास परलोक का घर विशेष रूप से तुम्हारे लिए है, दूसरों को छोड़कर, तो तुम मरने की कामना करो, यदि तुम सच्चे हो । (95) परन्तु वह कभी इसकी कामना नहीं करेंगे, उसके कारण जो वह अपने आगे भेज चुके हैं। और अल्लाह भली-भाँति जानता है अत्याचार करने वालों को। (96) और तुम उनको जीवन का सबसे अधिक लोभी पाओगे, उन लोगों से भी अधिक जो शिर्क करने वाले हैं। उनमें से प्रत्येक यह चाहता है कि वह हज़ार वर्ष की आयु पाये, यद्यपि इतना जीना भी उसको यातना से बचा नहीं सकता। और अल्लाह देखता है जो कुछ वह कर रहे हैं। (97) कहो कि जो कोई जिब्रील (अल्लाह की वाणी पैग़म्बर तक लाने वाला दूत) का विरोधी है तो उसने इस वाणी को तुम्हारे हृदय पर अल्लाह के आदेश से उतारा है, वह पुष्टि करने वाला है उसका, जो उसके आगे है और वह मार्गदर्शन और शुभसूचना है ईमान वालों के लिए। (98) जो कोई शत्रु हो अल्लाह का और उसके फ़रिश्तों का और उसके रसूलों (सन्देष्टाओं) का और जिब्रील व मीकाईल (एक दूत का नाम) का तो अल्लाह ऐसे अवज्ञाकारियों का शत्रु है। (99) और हमने तुम्हारे ऊपर स्पष्ट निशानियाँ ऊतारीं और कोई उनको नहीं झुठलाता, परन्तु वही लोग जो सीमा से निकल जाने वाले हैं। (100) क्या जब भी वह कोई वचन देंगे तो उनका एक समूह उसको तोड़ फेंकेगा। बल्कि उनमें से अधिकतर लोग ईमान नहीं रखते। ( 101 ) और जब उनके पास अल्लाह की ओर से एक रसूल (सन्देष्टा ) आया जो पुष्टि करने वाला था उस चीज़ की जो उनके पास है तो उन लोगों ने जिनको किताब दी गई थी, अल्लाह कि किताब को इस तरह पीठ पीछे फेंक दिया जैसे कि वह उसको जानते ही नहीं। (102) और वह उस चीज़ के पीछे पड़ गये जिसको शैतान, सुलेमान के राज्य का नाम लेकर पढ़ते थे। हालाँकि सुलेमान ने अवज्ञा नहीं की बल्कि ये शैतान थे जिन्होंने अवज्ञा की। वह लोगों को जादू सिखाते थे। और वह उस चीज़ में पड़ गये जो बाबिल में दो फ़रिश्तों, हारूत और मारूत पर उतारी गई, जबकि उनका मामला यह था कि वह जब भी किसी को यह सिखाते तो उससे कह देते कि हम तो परीक्षा के लिए हैं। अतः तुम अवज्ञाकारी न बनो। परन्तु वह उनसे वह चीज़ सीखते जिससे वह एक पुरुष और उसकी पत्नी के बीच अलगाव उत्पन्न कर दें। हालाँकि वह अल्लाह के आदेश के बिना इससे किसी का कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे। और वह ऐसी चीज़ सीखते जो उनको हानि पहुँचाये और लाभ न पहुंचाए। और वह जानते थे कि जो कोई उस चीज़ का खरीदार हो, परलोक में उसका कोई हिस्सा नहीं। कैसी बुरी चीज़ है जिसके बदले उन्होंने अपने प्राणों को बेच डाला। काश ! वह इसको समझते । (103) और यदि वह ईमान लाने वाले बनते और अल्लाह का डर अपनाते तो अल्लाह का बदला उनके लिए अधिक अच्छा था, काश वह इसको समझते । (104) ऐ ईमान वालो, तुम ‘राइना’ (हमारी ओर भी ध्यान करो, अवज्ञाकारी इस वाक्य को बदलकर ‘राईना’ अर्थात हमारा चरवाहा कहते थे) न कहो बल्कि ‘उन्ना’ (हमारी ओर ध्यान कीजिए) कहो और सुनो। और अवज्ञा करने वालों के लिए कष्टकर दण्ड है। (105) जिन लोगों ने अवज्ञा की, चाहे वह किताब वाले हों या बहुदेववादी, वह नहीं चाहते कि तुम्हारे ऊपर तुम्हारे पालनहार की ओर से कोई भलाई अवतरित हो । और अल्लाह जिसको चाहता है अपनी दया के लिए चुन लेता है। अल्लाह अत्यंत दयावान है। (106) हम जिस आयत को निरस्त करते हैं या भुला देते हैं तो उससे बेहतर या उसके समान दूसरी आयत लाते हैं। क्या तुम नहीं जानते कि अल्लाह हर चीज़ की क्षमता रखता है। (107) क्या तुम नहीं जानते कि अल्लाह ही के लिए आकाश और धर्ती का साम्राज्य है, और तुम्हारे लिए अल्लाह के अतिरिक्त न कोई मित्र है और न कोई सहायक। (108) क्या तुम चाहते हो कि तुम अपने रसूल से प्रश्न करो जिस प्रकार इससे पूर्व मूसा से प्रश्न किये गये। और जिस व्यक्ति ने ईमान को कुफ्र (अवज्ञा ) से बदल लिया, वह निश्चित रूप से सन्मार्ग से भटक गया। (109) बहुत से किताब वाले दिल से चाहते हैं कि तुम्हारे मोमिन (ईमान वाले) हो जाने के बाद किसी तरह वह फिर तुमको मुंकिर (अवज्ञाकारी) बना दें, अपनी ईष्र्या के कारण, इसके बावजूद कि सच्चाई उनके सामने स्पष्ट हो चुकी है। अतः क्षमा करो और अनदेखा करो यहाँ तक कि अल्लाह का निर्णय आ जाये । निस्सन्देह अल्लाह को हर चीज़ की सामथ्र्य प्राप्त है। (110) और नमाज़ स्थापित करो और जक़ात दो। और जो भलाई तुम अपने लिए आगे भेजोगे, उसको तुम अल्लाह के पास पाओगे। जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह निश्चित रूप से उसको देख रहा है ।


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